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…जब पत्नी की मौत के बाद बहुत रोये थे खुशवंत सिंह

जाने-माने साहित्यकार और पत्रकार खुशवंत सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनका कहना था कि उन्हें मौत का अहसास तभी हो गया था जब उनकी पत्नी का निधन हुआ। अपनी पुस्तक ‘खुशवंतनामा’ में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि ‘मुझे मौत का सामना तब करना पड़ा जब मेरी पत्नी का देहांत हुआ। नास्तिक होने […]

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जाने-माने साहित्यकार और पत्रकार खुशवंत सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनका कहना था कि उन्हें मौत का अहसास तभी हो गया था जब उनकी पत्नी का निधन हुआ। अपनी पुस्तक ‘खुशवंतनामा’ में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि ‘मुझे मौत का सामना तब करना पड़ा जब मेरी पत्नी का देहांत हुआ। नास्तिक होने की वजह से मुझे धार्मिक अनुष्ठानों में शांति नहीं मिली। मैंने पहली रात अकेले अंधेरे में कुर्सी पर बैठकर बिताई। बीच-बीच में मैं रोने लगता था लेकिन जल्दी ही खुद को संभाल लेता था। मेरे पास दुख जताने के लिए लोग आते, लेकिन मुझे चैन नहीं मिलता। कुछ दिनों के बाद मैं अपनी सामान्य दिनचर्या पर लौट आया, सुबह से शाम तक काम करते हुए।’ खुशवंत सिंह का वैवाहिक जीवन लंबा रहा। उनकी पत्नी कंवल का वर्ष 2001 में निधन हो गया।
‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ नामक कॉलम में बेबाकी से हर विषय पर जुदा अंदाज में लिखने वाले खुशवंत सिंह के निधन पर आज साहित्य जगत में शोक है। खुशवंत का जन्म 2 फरवरी 1915 को पंजाब के हदाली इलाके में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। खुशवंत सिंह ने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। इसके बाद कानून की डिग्री ली। उनका विवाह कंवल मलिक के साथ हुआ। इनके बेटे का नाम राहुल सिंह और पुत्री का नाम मीना है।
साल 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के विरोध में खुशवंत ने पद्मभूषण सम्मान लौटा दिया। वर्ष 2007 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। खुशवंत सिंह के पिता का नाम सर सोभा सिंह था, जो अपने समय के प्रसिद्ध ठेकेदार थे। उस समय सोभा सिंह को आधी दिल्ली का मालिक कहा जाता था। सर सोभा सिंह के बसाये सुजान पार्क में ही खुशवंत रहे। यहीं के अपने निवास पर खुशवंत ने अंतिम सांस ली।
बेबाक लेखक खुशवंत सिंह घुमक्कड़ी स्वभाव के भी थे। भारत में ही उन्होंने हर तरफ यात्रा की और उस यात्रा का वृतांत अपने अंदाज में बयां किया। वह कई देशों में भी गये। हर जगह का एक नया किस्सा वह लिखते और उनका ऐसा लेख बहुत सराहा जाता। उनके बारे में एक बात और बहुत प्रचलित है कि अंग्रेजी लेखन ही सही, लेकिन वह होता बहुत सामान्य भाषा में। अनुवाद के लिए भी उनकी यही इच्छा रहती थी कि बेहद सरल अंदाज में उनके लेखों का अनुवाद हो।

पत्रकारिता में भी तय किया लंबा सफर
खुशवंत सिंह की ख्याति एक अलहदा पत्रकार के रूप में भी रही, जो विषयों को दूसरी तरह से उठाते रहे। 1951 में वह आकाशवाणी से जुड़े। फिर भारत सरकार का पत्र ‘योजना’ का संपादन किया। मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया का भी उन्होंने संपादन किया। उन्होंने न्यू डेल्ही नामक पत्र का भी संपादन किया। इसके बाद वह 1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। इसके बाद उन्होंने साप्ताहिक कॉलम ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर लिखना शुरू किया जो तमाम प्रमुख अखबारों में एक साथ हिन्दी और अंग्रेजी में कई सालों तक छपता रहा। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में डेल्ही, ट्रेन टू पाकिस्तान, दि कंपनी ऑफ वूमन आदि हैं।
उन्होंने ऐतिहासिक रचनाएं भी लिखीं। उनकी रचना ‘हिस्ट्री ऑफ सिख’ दो खंडों में प्रकाशित हुई। इसके अलावा उन्होंने लगभग 100 महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं।  उनके पुत्र राहुल सिंह भी वरिष्ठ पत्रकार हैं। (ट्रिन्यू)

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‘मैं बिना तकलीफ के मरूं और मृत्यु का उत्सव मने’

पुस्तक खुशवंतनामा में लेखक ने मौत के सच को उकेरा है।

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‘एक बार मैंने दलाईलामा से पूछा कि मृत्यु का सामना कैसे करना चाहिए। उन्होंने ध्यान करने की सलाह दी। एक बार मैं बाम्बे में आचार्य रजनीश से मिला। मैंने उनसे अपने भय के बारे में बात की और उनसे पूछा कि इससे कैसे पार पाया जाए। उन्होंने मुझे बताया कि मौत के भय से पार पाने का एकमात्र जरिया यह है कि हम मरते हुए को देखें, मृत को देखें। मैं यह बहुत दिनों से करता रहा हूं। मैं शायद ही किसी की शादी में जाता हूं लेकिन अंतिम संस्कार में जरूर जाता हूं। मैं मृत व्यक्ति के रिश्तेदारों के साथ बैठता हूं और अक्सर निगमबोध घाट के श्मशान घाट भी जाता हूं और वहां चिता में आग लगते हुए और शरीर को लपटों में जलते हुए देखता हूं।… मृत्यु आखिरी पूर्ण विराम है। इससे आगे कुछ भी नहीं। यह एक ऐसा शून्य है जिसको कोई भी नहीं भेद पाया। इसका कोई कल नहीं है। …मेरी सारी उम्मीद यह है कि जब मेरी मृत्यु आए, बिना अधिक तकलीफ के, जैसे गहरी नींद में ही गुजर जाऊं। मैं अक्सर जैन दर्शन में विश्वास करता हूं कि मृत्यु का उत्सव मनाना चाहिए। मैंने अपना मृत्यु लेख 1943 में ही लिख लिया था जब मैंने 20 की उम्र को पार ही किया था। वह बाद में मेरी कहानियों के संकलन पोस्थुमस में प्रकाशित हुआ। इस लेख में मैंने यह कल्पना की है कि ट्रिब्यून मेरी मृत्यु की घोषणा पहले पन्ने पर एक छोटी सी तस्वीर के साथ कर रहा है। उसका शीर्षक इस तरह से पढ़ा जा सकता था : -हमें सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मौत के बारे में बताते हुए दुख हो रहा है। कल शाम 6 बजे उनकी मृत्यु हो गई। स्वर्गीय सरदार के घर आने वालों में अनेक मंत्री, उच्च न्यायालय के जज शामिल थे।’
यह अजीब इत्तेफाक है कि जाने-माने लेखक सरदार खुशवंत सिंह के निधन के कुछ समय पहले ही पेंग्विन इंडिया ने उनकी किताब खुशवंतनामा को छापा है। इसका अनुवाद प्रभात रंजन ने किया है। इसमें खुशवंत सिंह की रचनाओं में उक्त बातें लिखी गई हैं। उसमें उन्होंने मौत के भय और मौत से आदमी का सामना को लेकर कई बातें लिखी हैं। जिस मौत के लिए वह चाहते थे कि वह चुपचाप आये, बिना तकलीफ के। वैसा ही हुआ। 99 साल तक की उम्र तक खुशवंत जिंदादिली से जीये। वह अपनी जिंदादिली के संबंध में ही कहते थे, जिस्म बूढ़ा है, आंख बदमाश और दिल जवां।
ट्रेन टू पाकिस्तान लोकप्रिय रचना
खुशवंत सिंह हमेशा अपनी जिंदादिली के लिए जाने जाते रहे। परंपरागत तरीके से हटकर लिखने वाले खुशवंत सिंह जितने बेबाक पत्रकार थे, उतनी ही प्रसिद्धि उन्हें उपन्यासकार और इतिहासकार के रूप में भी मिली। वह भारत और पाकिस्तान दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय रहे। उनकी किताब ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ बेहद लोकप्रिय हुई। उनकी इस रचना पर फिल्म भी बन चुकी है। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।

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